*POST NO..::-03*

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*_▶ तज़किरए इमाम अहमद रज़ा 💡_*
_*⤵ बचपन की एक हिकायत*_

     जनाबे अय्यूब अली शाह साहिब अलैहिर्रहमा फरमाते है के बचपन में आप को घर पर एक मौलवी साहब क़ुरआन पढ़ाने आया करते थे। एक रोज़ का ज़िक्र है के मौलवी साहब किसी आयत में बार बार एक लफ्ज़ आप को बताते थे मगर आप की ज़बाने मुबारक से नही निकलता था वो "ज़बर" बताते थे आप "ज़ेर" पढ़ते थे ये केफिय्यत जब आप के दादाजान हज़रते रज़ा अली खान रहमतुल्लाह अलैह ने देखी तो आला हज़रत अलैहिर्रहमा को अपने पास बुलाया और क़ुरआन मजीद मंगवा कर देखा तो उस में कातिब ने गलती से ज़ेर की जगह ज़बर लिख दिया था, यानी जो आला हज़रत अलैहिर्रहमा की ज़बान से निकलता था वो सही था। आप के दादा ने पूछा के बेटे जिस तरह मोलवी साहब पढ़ाते थे तुम उसी तरह क्यू नही पढ़ते थे ? अर्ज़ की : मैं इरादा करता था मगर ज़बान पर काबू न पाता था।

     आला हज़रत अलैहिर्रहमा खुद फरमाते थे के मेरे उस्ताद जिन से में इब्तिदाई किताब पढ़ता था, जब मुझे सबक पढ़ा दिया करते, एक दो मर्तबा में देख कर किताब बंद कर देता, जब सबक सुनते तो हर्फ़ ब हर्फ़ सूना देता। रोज़ाना ये हालत देख कर सख्त ताज्जुब करते। एक दिन मुझसे फरमाने लगे अहमद मिया ! ये तो कहो तुम आदमी हो या जिन ? के मुझ को पढ़ाते देर लगती है मगर तुम को याद करते देर नही लगती.

     आप ने फ़रमाया के अल्लाह का शुक्र है में इंसान ही हूँ, हा अल्लाह का फ़ज़लो करम शामिल है।
*📚हयाते आला हज़रत, 168*
*📚तज़किरए इमाम अहमद रज़ा, 5*

       

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