*【POST 162】क्या इस्लाम में ताजियादारी जाइज़ है*

*_कुछ लोग मुहर्रम और सफ़र के महीने में ताजिये बनाते उन्हें ढोल बाजों के साथ घुमाते और उनके साथ सीना पीटते,मातम करते हुये उन्हें नक्ली और फर्ज़ी कर्बला में ले जा कर दफन करते हैं। यह सब बातें इस्लाम में मना हैं, नाजाइज़ व गुनाह हैं। प्यारे इस्लामी भाइयो! हमारा आपका प्यारा मज़हब जो "इसलाम" है, वह एक साफ सुथरा, संजीदा और शरीफ अच्छा भला,सीधा सच्चा मज़हब है। वह खेल तमाशों, गाने बाजों,ढोल ढमाकों, नाच,कूद फांद,मातम और सीना कूबी वाला मजहब नहीं है आजकल की ताजियेदार और उसको जाइज़ बताने वाले,दुनिया को यह ज़हिन दे रहे हैं कि इस्लाम भी दूसरे धर्मों की तरह मेलों ठेलों और खेल तमाशों वाला मज़हब हैं।_*

_कुछ लोग कहते हैं कि ताजिये बनाना जाइज़ है,उसको घुमाना वगैरा नाजाइज़ है। यह बात भी एक दम दुरूस्त नहीं बल्कि आजकल जो ताजिया बनाया जाता है,उस को बनाना भी मना है क्योंकि यह हज़रत इमाम हुसैन के रौज़े और मज़ार का सही नुक्शा नहीं। बल्कि इजाज़त सिर्फ इतनी है कि हजरत इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु के मज़ार पुर अन्वार का सही नक्शा किसी कागज़ वगैरा पर बना हुआ अपने पास या घर में रखे जैसे_

*_खाना-ए-काबा,गुंबदे खजरा,बगदाद शरीफ अजमेर शरीफ वगैरा के बने हुये नक्शे कलन्डरों वगैरा में और अलग से भी आते हैं और लोग बरकत हासिल करने के लिए उन्हे घरों में टांगते हैं।(हवाले और तफसील से जानने के लिए देखिये_*

📚 *फतावा रज़विया जि.10 किस्त अव्वल स.36*

_मुहर्रम के महीने की 7,12,13 तारीख को जो मेहंदी बनाई या निकाली जाती है,यह भी एक बेकार और गढ़ी हुई रस्म है ,राफ़ज़ी और शीआ मज़हब की पैदावार है, इस्लाम का इस से कोई तअल्लुक नहीं,जिहालात का नतीजा है।_

*_अहले सुन्नत वलजमाअत का मज़हब यह है कि हज़रत इमाम हुसैन और दूसरे शहीदाने करबला और  बुज़ुर्गाने दीन से सच्ची मोहब्बत यह है कि उनके नक्शे क़दम पर चला जाये और उनके रास्ते तरीके,ढंग और चाल चलन को अपनाया जाये। और उसके साथ साथ उनकी रूह को सवाब पहुँचाने के लिए नफ़िल पढ़े जायें,रोज़े रखे जायें,कुरआने करीम की तिलावत की जाये या सदका खैरात कर के अहबाब दोस्तों, रिशतेदारों या गरीबों मिस्कीनों को खाना,खिचड़ा,हलवा,मलीदा जो मयस्सर हो वह खिला कर उस का सवाब उनकी पाक रूहों को पहुँचाया जाये,जिस को फ़ातिहा कहते हैं, तो यह बे शक जाइज़ उम्दा और अच्छा काम है और उस से अल्लाह तआला राज़ी होता है। और अपने रब की रज़ा हासिल करना हर मुसलमान के लिए हर ज़रूरत से ज़्यादा ज़रूरी है। और न्याज़,फातिजा,सदका,खैरात में भी यह ज़रूरी है कि अपने नाम शोहरत और दिखावे के लिए न हो। बल्कि।जो भी और जितना भी हो खालिस अल्लाह तआला की रज़ा हासिल करने और बुज़ुर्गों को सवाब पहुँचाने के लिए हो। आजकल कुछ लोग लम्बी लम्बी न्याज़े दिलाते,खूब देगें पका पका कर खिलाते है और उनका मकसद अपनी नामवरी और शौहरत होता है और वह दिखावे के लिए ऐसा करते हैं। उनकी यह नियाज़ै कबूल नहीं होंगी।_*

_यह भी सुन्ने में आया है कि कोई शख्स ताजियेदारी और उसके साथ की जाने वाली खुराफात से मना करे कुछ लोग उसे वहाबी कह देते हैं और समझते हैं। ताजियेदारी सुन्नियों का काम है और उस से मना करना वहाबियों का तरीका है। हांलाकि ऐसा नहीं बल्कि कभी किसी सही सुन्नी आलिम ने ताजियेदारी को जाइज़ नहीं कहा है बल्कि सब ने हमेशा नाजाइज़ व गुनाह लिखा और आला हज़रत मौलाना अहमद रजा खाँ फाज़िले बरेलवी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि की किताबों में तो जगह जगह उसको हराम बताया गया है और उस बारे में उनके फतावा का मजमूआ एक किताब की शक्ल में छप भी चुका है_

*_जिस का नाम रिसाला-ए-ताजिये दारी है। लिहाजा जो हमारे भाई तफ़सील से इस मसअले को पढ़ना चाहें वह सुन्नी कुतुब ख़ानों से इस रिसाले को हासिल कर के पढ़ें।_*

_और जो मौलवी ताजियेदारी को जाइज़ कहते हैं, वह ऐसा पब्लिक को खुश करने और उन से प्रोग्रामो के ज़रिए नज़राने वगैरा हासिल करने के लिए करते हैं। उन्हें चाहिए कि पब्लिक को खुश रखने के बजाये अल्लाह तआला और उस के रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम  को राज़ी रखने की फिक्र करे क्योंकि हराम को हलाल बताने वालों की जब क़ब्र व हश्र में पिटाई होगी तो यह पब्लिक बचाने नहीं जायेगी और उन जलसों प्रोग्रामों और नज़रानों की रकमों के ज़रीए वहाँ जान नहीं छूटेगी। बल्कि यही ताजियेदार जिन को खुश रखने के लिए यह मौलवी गलत मसअले बताते हैं,कयामत के दिन उनका दामन पकड़ेंगे।_

*_यह भी मुम्किन है कि ताजियेदारी और उस के साथ की जाने वाली खुराफातों को जाइज़ कहने वाले मौलवी वहाबियों के एजेन्ट हों और उनसे खुफिया समझौता किये हुये हों क्योंकि वहाबियत को उस ज़रिये से फायदा  पहुँचता_*

_और काफी लोग अपनी जिहालत की वहज से हमारे माहौल में खिलाफे शरअ हरकात देख कर वहाबियों की तारीफ करने लगते हैं हांलाकि यह उन की भूल है और सुन्नी उलमा की किताबें न पढ़ने का नतीजा है।_

_*हाँ इतना जानना ज़रूरी है कि वहाबी ताजियेदारी को शिर्क और ताजियेदारों को मुशिरक व काफ़िर तक कह देते हैं। लेकिन सुन्नी उलमा उन्हें मुसलमान और अपना भाई ही ख्याल करते हैं। बस बात इतनी है कि वह एक गुनाह कर रहे हैं। खुदाए तआला उन्हें इस से बचने की तौफिक अता फरमाये ।* ताजियेदारी से मुतअल्लिक तफसीली मालमात हासिलकरने के लिए मेरी किताब मुहर्रम में क्या जाइज़ क्या नाजाइज़ का मुताला करें |_

📚 *गलत फ़हमियाँ और उनकी इस्लाह सफहा,176*

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