*_आजकल अवाम अहले सुन्नत में एक बड़ी तादाद उन लोगों की है जिन्होंने नमाज़, रोज़ा, ज़कात वगैरह इस्लाम में ज़रूरी बातों को छोड़ कर नियाज़, नज़्र, फातिहा वगैरह बिदआते हसना को लाज़िम व ज़रूरी समझ लिया है, यह एक गलतफहमी है। इसमें कोई शक नहीं कि नियाज़,फ़ातिहा, मीलाद शरीफ़ मुरव्वजा सलात व सलाम यअनी जैसे आजकल पढ़ा जाता है, बारह रबीउलअव्वल को जुलूस निकालना, ग्यारहवीं शरीफ, 22 रजब और 14 शाबान और 10 मुहर्रम वगैरह को खाने, खिचड़े, पूड़ी, हलवे, पुलाव और मालीदे पर फ़ातिहा दिलाना, उर्स करना, बुज़ुर्गों के मज़ारात पर हाज़िरी देना, कब्र पर अज़ान देना, हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के नाम को सुनकर अँगूठे चूमना, मुर्दो के तीजे, दसवें और चालीसवें करना, ये सब अच्छे काम हैं, इन्हें करने में कोई हर्ज और गुनाह नहीं। जो इन्हें गलत कहते हैं, वो खुद गलत हैं। लेकिन जो इन्हें फर्ज़ और वाजिब (शरअन लाज़िम व ज़रुरी)।ख्याल करते हैं, वो भी भूल में हैं। इस मज़मून से हमारा मकसद सिर्फ उनकी इस्लाह करना है।_*
_सुन्नी भाईयों! नियाज़, फातिहा, उर्स, मीलाद वगैरह ऊपर ज़िक्र की हुई बातों में मुन्किरीन वहाबियों से इख्तिलाफ सिर्फ यह है कि वो इनको बुरा कहते हैं और उलेमाए अहले सुन्नत इन सब कामों को अच्छा काम बताते हैं। लेकिन फर्ज़ व वाजिब (शरअन लाज़िम व ज़रूरी) ये भी नहीं कहते। फर्ज़ और वाजिब तो इस्लाम में ये काम हैं :-_
*_पाँचों वक़्त नमाज़ बाजमाअत की सख्ती के साथ पाबन्दी करना। रमज़ान के महीने के रोज़े रखना। साहिबे निसाब को साल में एक बार ज़कात निकालना। जिसके बस की बात हो उसके लिए पूरी ज़िन्दगी में एक बार हज करना। ज़िना, शराब, जुए, सूद, झूट, गीबत, ज़ुल्म, पिक्चर, गाने, तमाशे वगैरह से।बचना। माँ बाप की फरमाबरदारी करना। जिसका आप पर जो हक है उसको अदा करना। कर्ज़ लेकर जल्द से जल्द देने की कोशिश करना। मज़दूर की मज़दूरी देने में देर न करना वगैरह। हक यह है अगरचे हक कड़वा होता है कि नियाज़ व नज़्र ,मीलाद व फातिहा, उर्स व मज़ारात की हाज़िरी का फैज़ और फाइदा सही मअनों में उन्हीं को हासिल होता है जो उन कामों पर अमल करते हैं जिनका हमने अभी ऊपर ज़िक्र किया है। जो लोग नमाज़ रोज़े को छोड़ कर हराम कमाते, हराम खाते, हराम करते और फिर बुज़ुर्गों की नियाज़ दिलाते, उनके नाम पर बड़ी बड़ी देगें पकाते, मज़ारात पर हाज़िरी देते हैं उनकी वजह से मजहब ए अहले सुन्नत बदनाम हो रहा है।_*
_यह जान लेना भी ज़रूरी है कि दूसरे फिरकों में जिन लोगों को इस्लाम से ख़ारिज और काफ़िर कहा गया है वह नियाज़ व फातिहा न दिलाने की वजह से नहीं बल्कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और दीगर अम्बियाए इज़ाम की शान में गुस्ताखी करने की वजह से उन्हें गुमराह व बदमज़हब या काफिर वगैरहा करार दिया गया है।_
*_अलबत्ता इसमें भी कोई शक नहीं कि नियाज़ व फातिहा, उर्स व मीलाद वगैरा आजकल अहले हक की अलामत निशान और पहचान बन गई हैं लिहाज़ा इन कामों को आम तौर से छोड़ा न जाये और फर्ज़ व वाजिब भी न समझा जाये । बस अच्छे काम समझ कर शरीअते इस्लामिया के दाइरे में रह कर करते रहें। और किसी के ईसाले सवाब के लिए उसकी फातिहा को किसी ख़ास दिन के साथ लाज़िम व ज़रूरी समझना भी गलतफहमी है। बल्कि हर एक की फातिहा हर दिन और हर वक़्त हो सकती है। और किसी।निसबत से किसी दिन को खास कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं जबकि उसको लाज़िम और ज़रूरी न समझे।_*
*आलाहज़रत फरमाते हैं :-*
_यह तअय्युनात (दिनों को फ़ातिहा के लिए खास करना) उर्फी है इनमें असलन हर्ज नहीं जबकि इन्हें शरअन लाज़िम न जाने। यह न समझे कि इन्हीं दिनों में सवाब पहुँचेगा,आगे पीछे नहीं।_
📚 *(फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफा 219)*
*_खुलासा यह कि दिनों को तय कर लेना अपनी सुहूलत और रिवाज के तौर पर है और इसमें हर्ज नहीं मगर इसे लाज़िम न जाने कि हम दिन तय कर लेंगे तभी सवाब पहुँचेगा और दिन आगे पीछे हो जाने से सवाब न पहुँचेगा यह गलत है।_*
*और दूसरी जगह फरमाते हैं :*
_ईसाले सवाब हर दिन मुमकिन है और खुसूसियत के साथ।किसी एक तारीख का इल्तिज़ाम (पाबन्दी) जबकि उसे शरअन लाज़िम न जाने मुज़ाइका (हरज) नहीं।_
📚 *(फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफा 224)*
📚 *गलत फ़हमियाँ और उनकी इस्लाह सफहा,172 173 174*
_सुन्नी भाईयों! नियाज़, फातिहा, उर्स, मीलाद वगैरह ऊपर ज़िक्र की हुई बातों में मुन्किरीन वहाबियों से इख्तिलाफ सिर्फ यह है कि वो इनको बुरा कहते हैं और उलेमाए अहले सुन्नत इन सब कामों को अच्छा काम बताते हैं। लेकिन फर्ज़ व वाजिब (शरअन लाज़िम व ज़रूरी) ये भी नहीं कहते। फर्ज़ और वाजिब तो इस्लाम में ये काम हैं :-_
*_पाँचों वक़्त नमाज़ बाजमाअत की सख्ती के साथ पाबन्दी करना। रमज़ान के महीने के रोज़े रखना। साहिबे निसाब को साल में एक बार ज़कात निकालना। जिसके बस की बात हो उसके लिए पूरी ज़िन्दगी में एक बार हज करना। ज़िना, शराब, जुए, सूद, झूट, गीबत, ज़ुल्म, पिक्चर, गाने, तमाशे वगैरह से।बचना। माँ बाप की फरमाबरदारी करना। जिसका आप पर जो हक है उसको अदा करना। कर्ज़ लेकर जल्द से जल्द देने की कोशिश करना। मज़दूर की मज़दूरी देने में देर न करना वगैरह। हक यह है अगरचे हक कड़वा होता है कि नियाज़ व नज़्र ,मीलाद व फातिहा, उर्स व मज़ारात की हाज़िरी का फैज़ और फाइदा सही मअनों में उन्हीं को हासिल होता है जो उन कामों पर अमल करते हैं जिनका हमने अभी ऊपर ज़िक्र किया है। जो लोग नमाज़ रोज़े को छोड़ कर हराम कमाते, हराम खाते, हराम करते और फिर बुज़ुर्गों की नियाज़ दिलाते, उनके नाम पर बड़ी बड़ी देगें पकाते, मज़ारात पर हाज़िरी देते हैं उनकी वजह से मजहब ए अहले सुन्नत बदनाम हो रहा है।_*
_यह जान लेना भी ज़रूरी है कि दूसरे फिरकों में जिन लोगों को इस्लाम से ख़ारिज और काफ़िर कहा गया है वह नियाज़ व फातिहा न दिलाने की वजह से नहीं बल्कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम और दीगर अम्बियाए इज़ाम की शान में गुस्ताखी करने की वजह से उन्हें गुमराह व बदमज़हब या काफिर वगैरहा करार दिया गया है।_
*_अलबत्ता इसमें भी कोई शक नहीं कि नियाज़ व फातिहा, उर्स व मीलाद वगैरा आजकल अहले हक की अलामत निशान और पहचान बन गई हैं लिहाज़ा इन कामों को आम तौर से छोड़ा न जाये और फर्ज़ व वाजिब भी न समझा जाये । बस अच्छे काम समझ कर शरीअते इस्लामिया के दाइरे में रह कर करते रहें। और किसी के ईसाले सवाब के लिए उसकी फातिहा को किसी ख़ास दिन के साथ लाज़िम व ज़रूरी समझना भी गलतफहमी है। बल्कि हर एक की फातिहा हर दिन और हर वक़्त हो सकती है। और किसी।निसबत से किसी दिन को खास कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं जबकि उसको लाज़िम और ज़रूरी न समझे।_*
*आलाहज़रत फरमाते हैं :-*
_यह तअय्युनात (दिनों को फ़ातिहा के लिए खास करना) उर्फी है इनमें असलन हर्ज नहीं जबकि इन्हें शरअन लाज़िम न जाने। यह न समझे कि इन्हीं दिनों में सवाब पहुँचेगा,आगे पीछे नहीं।_
📚 *(फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफा 219)*
*_खुलासा यह कि दिनों को तय कर लेना अपनी सुहूलत और रिवाज के तौर पर है और इसमें हर्ज नहीं मगर इसे लाज़िम न जाने कि हम दिन तय कर लेंगे तभी सवाब पहुँचेगा और दिन आगे पीछे हो जाने से सवाब न पहुँचेगा यह गलत है।_*
*और दूसरी जगह फरमाते हैं :*
_ईसाले सवाब हर दिन मुमकिन है और खुसूसियत के साथ।किसी एक तारीख का इल्तिज़ाम (पाबन्दी) जबकि उसे शरअन लाज़िम न जाने मुज़ाइका (हरज) नहीं।_
📚 *(फतावा रज़विया, जिल्द 4,सफा 224)*
📚 *गलत फ़हमियाँ और उनकी इस्लाह सफहा,172 173 174*
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