*POST NO..::-07*

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*_▶ तज़किरए इमाम अहमद रज़ा 💡_*
_*⤵ बेदारी में दीदारे मुस्तफा*_

मेरे आक़ा आला हज़रत अलैहिर्रहमा जब दूसरी बार हज के लिये हाज़िर हुए तो मदिन-ए-मुनव्वरह में नबीये रहमत की ज़ियारत की आरज़ू लिये रौज़ए अतहर के सामने देर तक सलातो सलाम पढ़ते रहे, मगर पहली रात किस्मत में ये सआदत न थी। इस मौके पर वो मारूफ़ नातिया ग़ज़ल लिखी जिस के मतलअ में दामन रहमत से वाबस्तगी की उम्मीद दिखाई है:-

*वो सुए लालाज़ार फिरते है*
*तेरे दिन ऐ बहार  फिरते  है*

     मकतअ में बारगाहे रिसालत में अपनी आजिज़ी और बे मिस्किनी का नक्शा यूँ खींचा है:-

*कोई क्यू पूछे तेरी बात रज़ा*
*तुझ से कुत्ते हज़ार फिरते है*

*शरहे कलामे रज़ा :* इस मकतअ में आशिके माहे रिसालत, आला हज़रत अलैहिर्रहमा कलामे इन्केसारी का इज़हार करते हुए अपने आप से फरमाते है:- ऐ अहमद रज़ा ! तू क्या और तेरी हक़ीक़त क्या ! तुझ जैसे तो हज़ारो सगाने मदीना गलियो में यु फिर रहे है !

     ये ग़ज़ल अर्ज़ करके दीदार के इन्तिज़ार में मुअद्दब बेठे हुए थे के किस्मत अंगड़ाई ले कर जाग उठी और चश्माने सर (यानी सर की खुली आँखों) से बेदारी में ज़ियारते महबूबे बारी से मुशर्रफ हुए
*📚हयाते आला हज़रत, 1/92*

     क़ुरबान जाइए उन आँखों पर के जो आलमे बेदारी में जनाबे रिसालत के दीदार से शरफ-याब हुई। क्यू न हो के आप के अंदर इश्के रसूल कूट कूट कर भरा हुवा था और आप *"फनाफिर्रसूल"* के आला मन्सब पर फ़ाइज़ थे। आप का नातिया कलाम इस अम्र का शाहिद है।
*📚तज़किरए इमाम अहमद रज़ा, 13*

        

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